कुछ क्षण के लिए ऐसा प्रतीत हुआ जैसे वक्त ने खुद को रोक लिया हो।
पेड़ से गिरती ओस की बूंद भी जैसे हवा में झूलने लगी। तभी एक तेज हवा का झोंका आया। जिसने मेरा भ्रम तोड़ दिया मैं झपट कर आगे की ओर बढ़ा लेकिन देखते ही देखते वो परछाई मेरी आंखो से ओझ हो गई। मैंने इधर उधर बहुत ढूंढा मगर वहां कोई नहीं था। मैं वापस अपने काम पर चला गया…..।
जतिन अपनी घड़ी में समय देखता हुआ। स्टेशन की ओर झपट कर चल रहा था कि कहीं उसकी ट्रेन न छूट जाएं।
आज उसे अपने दफ़्तर जल्दी पहुंचना था। इसलिए इतनी ठंड होने के बावजूद भी, वो अपने काम के लिए निकल पड़ा।
बाहर कोहरा इतना घना था, पास की वस्तु भी साफ साफ दिखाई नहीं दे रही थी ।… सड़के एक दम सुनसान पड़ी है दूर दूर तक एक पंछी तक नहीं है। एक तो ये पहाड़ी क्षेत्र और ऊपर से इतनी ठंड , मानो कोई बाहर निकला और वही ठंड के मारे मर जाए। हवा भी हर गुजरते पल अपना भयानक रूप दिखा रही है। लगता है इस बार सब ठंड से ही मरेंगे, वह अपने आप से बडबडा रहा था।
सड़क पर जाते हुए। एक बुजुर्ग ने कहा… बेटा बहुत ठंड है इतनी सुबह कहां चले? बाबा पापी पेट के लिए काम पर तो जाना पड़ेगा, नहीं तो मालिक नौकरी से बाहर कर देगा, वह मुस्कुराते हुए बोला।
सही कहा तुमने दो वक्त की रोटी के लिए क्या नहीं करना पड़ता बेटा।
वह ठंड से कंपता हुआ झपट कर चल रहा था। कुछ दूरी पर एक धुंधली परछाई दिखाई दी। देखने से लगा जैसे वह उसे पहले से जनता है। उसे देखने के लिए वह झपटा तो परछाई भी चलने लगी।
साफ साफ तो नहीं दिख रहा था लेकिन चलने से मालूम हो रहा था, जैसे वो एक औरत है। उसकी पायल की झंकार सुनाई दी। जतिन ने और तेज झपट कर पीछा किया। ठंड की वजह से उसकी सांस फुलने लगी। वह थोड़ी देर रुका तो देखते ही देखते वह परछाई उसकी आंखों से ओझल हो गई। पास में एक चौराहा था। हिम्मत करके आगे पहुंचा और चौराहे पर इधर उधर बहुत ढूंढा मगर चारों तरफ कोहरा छाया पड़ा था।
सड़कों पर चहल पहल भी होने लगी थी। पर वो उसे कैसे पहचानता उसने उसकी पायल की आवाज सुनी थी। उसके कपड़ों का रंग तक उसे नहीं पता था।
क्या वह तारा थी? आख़िर वो इस शहर में क्या कर रही है? क्या वो फिर से वापस लौट आई? नहीं नहीं वो नहीं आ सकती उसने तो मुझे छोड़ दी था। अब क्यों आएगी? ये सब जतिन अपने मन में सोच रहा था।
जब उसने घड़ी में देखा, ट्रेन के आने का समय हो चुका था। जल्दी जल्दी उसने स्टेशन के लिए टैक्सी ली।
स्टेशन पर ज्यादा भीड़ नहीं थी क्योंकि सब लोग छुटी पर थे। ट्रेन के इंतज़ार में खड़ा वह वहां की पुरानी घड़ी देख रहा था। तभी ट्रेन की सीटी बजी। जतिन ने लम्बी सांस ली, अच्छा हुआ जो मैंने टैक्सी ले ली थी नहीं तो मुझे दफ्तर पहुंचने में देर हो जाती।
वह ट्रेन में चढ़ा और खिड़की के पास वाली सीट पर जा बैठा।
वह बाहर की ओर देख रहा था, चारों तरफ धुंआ ही धुंआ था। आस पास के पेड़ पौधें, बड़े बड़े पहाड़ भी कोहरे में कहीं खायब हो गए थे। नीचे ज़मीन तक दिखाई नहीं दे रही थी। ऐसा लगा जैसे ट्रेन बादलों पर चल रही हो। धरती से कोषों दूर कहीं स्वर्ग या अलग ही दुनिया में हो।
कितना अच्छा होता अगर सबकुछ ऐसे ही हवा में चलता। किसी को भी ज़मीन पर चलने की जरूरत न होती।
ऐसे ही सोचते हुए उसे याद आया।
वो दिन कितना खूबसूरत था जब पहली बार वह तारा से मिला था। काश उसने तारा की बात मान ली होती। हर छोटी छोटी बात पर झगड़ा करना ठीक नहीं होता। रिश्ते खराब होते हैं और कभी कभी पूरा परिवार बिखर जाता है।
सब उसकी गलती थी।
कई साल पहले…
इसी स्टेशन पर खूब चहल पहल हुआ करती थी। बसंत ऋतु का समय था चारों तरफ हरियाली, पहाड़ों में फूलों की महक जो हवाओं में घुल रही थी। दूर दूर से सब यहां घूमने आने लगे।
ऊंची पहाड़ियां, नीला आसमान गिरते झरनों का संगीत, नदियां, सुकून, ये सब एक अलग ही दुनिया में ले जाती थी।
यहीं पर उन दोनों की पहली मुलाकात हुई,, तारा पढ़ी लिखी और पहले से ही सामाजिक कार्य करने में रूचि रखती थी। उसके विचार दूसरों से बिल्कुल अलग थे। उसके घर वालों को उसपरबहुत नाज़ था।
जतिन एक पढ़ा लिखा ग्रैजुएट लड़का था। उसका मानना था कि औरत सिर्फ पढ़ाई लिखाई करके एक अच्छी नौकरी और घर चला सकती है। घर के फ़ैसले नहीं ले सकती। सिर्फ आदमी ही घर के सही फ़ैसले ले सकते हैं। लेकिन तारा एक स्वतंत्र लड़की थी।
जब वह पहली बार तारा से मिला था, उसके हाथ में मदर टेरेसा की कोई किताब थी। देखने से साफ साफ लग रहा था। जैसे वह खुले विचारों वाली लड़की है।
ऐसे ही कभी कभार उनकी मुलाकात स्टेशन पर हो जाती थी। धीरे धीरे उनकी दोस्ती हुई। जतिन और तारा की आपस में अच्छी बनती थी।
एक बार जतिन अपने परिवार के साथ किसी शादी में गया हुआ था। जहां तारा भी अपने माता पिता के साथ आई थी। वहीं दोनों को पता चला उनके पिता जी आपस में अच्छे दोस्त हैं।
उन दोनों के बीच की दोस्ती को देखते हुए। घर वालों ने जतिन और तारा की शादी करा दी।
कुछ महीनों तक तो सब कुछ ठीक चल रहा था। लेकिन वक्त के साथ उनमें अनबन रहने लगी। जतिन को तारा का सामाजिक कार्य करना पसंद नहीं था। दिन भर उसका बाहर रहना। वह चाहता था तारा सिर्फ नौकरी करें और घर संभाले।
मगर तारा को जतिन की बात अच्छी नहीं लगी। उसे दूसरों की मदद करना पसंद था, वह अक्सर अनाथालय में बच्चों से मिलने जाती, उनके साथ खेलती उन्हें नए नए खिलौने और कपड़े दिलाती।
वह कहती थी… इतनी खूबसूरत ज़िंदगी है इसे कहीं ओर क्यों ढूंढू? मुझे इन बच्चों के साथ जो सुकून मिलता है वो बाहर की दुनिया में कहां है?
समाज में तारा का बढ़ता सम्मान, उसके प्रति लोगों का प्यार। ये सब जतिन को अखर ने लगा।
क्योंकि आस पास के लोग उसे तारा के पति के रूप में जानते थे।
उसे ये बात बिल्कुल भी अच्छी नहीं लगती थी।
जतिन को लगता कि तारा से शादी करना उसकी सबसे बड़ी गलती है। उसे पहले ही पता था, वह कैसी लड़की है। जब शादी कर ली तो अब भुगतो। उसके सब दोस्त उसकी मजाक बनाते है। कहते हैं… तुम्हें तो घर संभालना चाहिए। बाकि सब तुम्हारी पत्नी कर लेगी।
तारा को लेकर वह आग बबूला हो रहा था।
आज उसने तारा को सबक सिखाने का ठान लिया था।
कैसे एक पत्नी अपने पति की सारी बात सुनती है ये आज उसे पता चलेगा।
वह दरवाजे पर कुर्सी डाल कर बैठ गया।
शाम को जब वह घर आई, उसने जतिन को अकड़ में देखा। लेकिन कुछ बोले बिना ही अपना काम करने लगी।
जतिन ने तो पहले ही झगड़े का मन बना रखा था। तुम्हें पता भी है समय क्या हुआ? ये कोई वक्त है तुम्हारे घर लौट ने का? पहले तो वह चुपचाप अपना काम करती रही,, लेकिन जतिन के बार बार बोलने पर उसने कहा… मेरा काम ही कुछ ऐसा है। जब किसी की मदद करते हैं तो कुछ वक्त तो लगता है।
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